आजाक्स प्रांताध्यक्ष आदिवासी आई. ए. एस. संतोष वर्मा: सदियों की पीड़ा सवालों में एक आदिवासी एक कथन एक सामाजिक वणऺ व्यवस्था
न्यूज़ फौलादी टाइम्स 30/12/2025
महबूब खान 
अजाक्स प्रांताध्यक्ष आदिवासी आई.ए.एस. संतोष वर्मा: सदियों की पीड़ा सवालों में-एक अधिकारी, एक कथन और सामाजिक वर्ण व्यवस्था
--- 

टीकमगढ़। 30 दिसम्बर 2025
   (न्यूज़ फौलादी टाइम्स)
      9893776501
लोकतंत्र की आत्मा न्याय, समानता और विधि के शासन पर टिकी होती है। जब कोई व्यक्ति कानून की पूरी प्रक्रिया से गुजरकर दोषमुक्त घोषित हो जाता है, तब भी बार-बार संदेह और आरोपों के घेरे में खड़ा करना केवल उस व्यक्ति के साथ अन्याय नहीं, बल्कि पूरी न्यायिक व्यवस्था की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगाता है। आई.ए.एस. अधिकारी संतोष वर्मा का प्रकरण इस असहज सच्चाई को उजागर करता है। यह मामला किसी एक अधिकारी का नहीं, बल्कि उस मानसिकता का दर्पण है जो दलित-आदिवासी समाज से आए व्यक्ति को सहज रूप से स्वीकार नहीं कर पाती। दोषमुक्त होने के बाद भी बार-बार सफाई माँगना, न्याय नहीं बल्कि पूर्वाग्रह का विस्तार है। आज आई.ए.एस. अधिकारी  संतोष वर्मा का प्रकरण इसी असहज सच्चाई को उजागर करता है, जहाँ तथ्यों, जांचों और संवैधानिक सिद्धांतों के आधार पर दोषमुक्त होने के बाद भी उन्हें लगातार अपमान, अविश्वास और सार्वजनिक बहस का पात्र बनाया जा रहा है। कानून का मूल सिद्धांत स्पष्ट है कि जब तक दोष सिद्ध न हो, व्यक्ति निर्दोष माना जाता है, किंतु व्यवहार में दलित और आदिवासी पृष्ठभूमि से आए अधिकारियों के लिए यह सिद्धांत अक्सर कागज़ों तक सीमित रह जाता है। दोषमुक्त होने के बाद भी सफाई माँगना, बार-बार कटघरे में खड़ा करना, वास्तविक न्याय नहीं हो सकता। न्यायिक और प्रशासनिक जांच प्रक्रियाएँ इसलिए नहीं होतीं कि उनके निष्कर्षों को सुविधानुसार नकार दिया जाए। वे इसलिए होती हैं ताकि सत्य और असत्य के बीच स्पष्ट रेखा खींची जा सके। यदि इन प्रक्रियाओं पर ही विश्वास न रहे, तो फिर अदालत, कानूनी नियम और लोकतंत्र सब खोखले प्रतीत होते हैं। किसी अधिकारी को बार-बार स्वयं को साबित करने के लिए विवश करना मानसिक, सामाजिक और पेशेवर उत्पीड़न के अतिरिक्त कुछ नहीं है आज का समय और भी चिंताजनक इसलिए है क्योंकि तथ्यों से पहले शोर और न्याय से पहले फैसला सुनाने की प्रवृत्ति हावी हो चुकी है। मीडिया और सोशल मीडिया की त्वरित अदालतें व्यक्ति के वर्षों के संघर्ष, सेवा और ईमानदारी को कुछ क्षणों के विवाद में समेट देती हैं। न्याय का अर्थ केवल दंड देना नहीं, बल्कि निर्दोष की प्रतिष्ठा की रक्षा करना भी है। जब यह संतुलन टूटता है, तब लोकतंत्र की आत्मा घायल होती है।
इसी क्रम में वर्तमान में आदिवासी आई.ए.एस. श्री संतोष वर्मा के कुछ शब्दों को लेकर जो विवाद खड़ा किया गया है, वह भी इसी असंतुलित दृष्टि का परिणाम है कुछ घृणित मानसिकता रखने वालों ने उनके शब्दों को गलत तरीके से परिभाषित किया। एक कथन को उनके पूरे सामाजिक संदर्भ, अनुभव और पीड़ा से अलग कर प्रस्तुत किया गया। किसी भी जिम्मेदार पद पर बैठे व्यक्ति से संयम की अपेक्षा स्वाभाविक है, किंतु यह भी सत्य है कि वर्षों की उपेक्षा, असमानता और संघर्ष से उपजी पीड़ा कभी-कभी शब्दों में तीखापन ले आती है। उस पीड़ा को समझने के बजाय यदि पूरे व्यक्तित्व को ही अपराधी ठहरा दिया जाए, तो यह न्याय नहीं, बल्कि संवेदनहीनता का प्रमाण बन जाता है।
आज संतोष वर्मा केवल एक आई.ए.एस. अधिकारी नहीं बल्कि वे उस पूरे दलित-आदिवासी समाज का प्रतीक हैं, जिसने सदियों तक अपमान सहा, अवसरों से वंचित रहा और फिर भी शिक्षा, संघर्ष और आत्मसम्मान के बल पर व्यवस्था के द्वार तक पहुँचा। जब कोई दलित या आदिवासी अधिकारी शीर्ष तक पहुँचता है, तो वह अकेला नहीं पहुँचता...वह अपने साथ अपने समाज की उम्मीदें, सपने और स्वाभिमान लेकर पहुँचता है। और जब उसी अधिकारी को बार-बार संदेह और अपमान के बीच खड़ा किया जाता है, तो चोट केवल व्यक्ति को नहीं लगती,वह हर उस युवा छात्र के सपनों को छलनी करती है, जो आज भी हाशिये से आगे देखने का और बढने का साहस कर रहा है।
समर्थन किसी व्यक्ति को निर्विवाद सिद्ध करने का प्रयास नहीं होता। समर्थन उस सामाजिक न्याय की मशाल को थामे रखने का नाम है, जिसे दलित-आदिवासी समाज ने अपने संघर्ष और बलिदान से जलाए रखा है। किसी एक वाक्य को हथियार बनाकर उस पूरे जीवन पर वार कर देना, जो पीढ़ियों की बेड़ियाँ तोड़कर यहाँ तक पहुँचा हो, केवल अन्याय ही नहीं बल्कि यह उस समाज की आत्मा पर प्रहार है। ऐसे समय में मौन रहना तटस्थता नहीं, बल्कि अन्याय की स्वीकृति होता है।
दलित आदिवासी आई.ए.एस. संतोष वर्मा के साथ खड़ा होना किसी एक नाम का समर्थन नहीं, बल्कि उस विचार का समर्थन है कि न्याय को जाति, पहचान और पूर्वाग्रह से ऊपर रखा जाए। समर्थन में खड़ा होना उस लोकतंत्र को बचाने की कोशिश है, जो बिना दलित-आदिवासी सम्मान के केवल एक खोखला ढाँचा बनकर रह जाएगा।
श्री संतोष वर्मा के समर्थन का अर्थ किसी व्यक्ति विशेष का पक्ष लेना नहीं, बल्कि संविधान, कानून और समानता के मूल सिद्धांतों के साथ खड़ा होना है। यह समर्थन उस सोच के विरुद्ध है जो जाति, पृष्ठभूमि या पहचान के आधार पर संदेह को जन्म देती है। न्याय तभी जीवित रह सकता है, जब वह निष्पक्ष हो और उसे बिना भेदभाव स्वीकार किया जाए।
आज आवश्यकता है कि समाज, मीडिया और प्रशासन-तीनों मिलकर यह स्पष्ट संदेश दें कि दोषमुक्त व्यक्ति पर निराधार प्रश्न उठाना स्वीकार्य नहीं है। कानून के निर्णय पर विश्वास रखना ही लोकतंत्र की सच्ची परीक्षा है। यदि हम इस परीक्षा में असफल होते हैं, तो नुकसान केवल एक अधिकारी का नहीं, बल्कि पूरे लोकतांत्रिक ढांचे का होगा। यह बहस शब्दों की नहीं, बल्कि दलित-आदिवासी स्वाभिमान और लोकतंत्र की आत्मा की परीक्षा है। दोषमुक्त अधिकारी पर निराधार आरोप केवल अन्याय नहीं, बल्कि न्यायिक विश्वास पर तीव्र चोट है। अगर आज एक आदिवासी अधिकारी को शक के कटघरे में खडा कर अपमानित किया जा रहा, तो याद रखा जाए..उसके साथ पूरा दलित-आदिवासी-पिछड़ा समाज खड़ा है, और इस समाज का एकजुट होना ही इतिहास बदलेगा।
 (कु.प्रियंका जाटव सामाजिक कार्यकर्ता, विचारक-चिंतक)